जयपुर की रज़ाई और भारतीय हस्तशिल्प

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  • फज़ल इमाम मल्लिक

    अपनी संस्कृति, सभ्यता, शौर्य और इतहिास की वजह से जयपुर की पहचान देश में ही नहीं विदेशों में भी है। गुलाबी नगर के नाम से मशहूर जयपुर अपनी वास्तुकला, महलों और हवेलियों की वजह से जहां जाना जाता है, तो दूसरी तरफÞ अपनी रज़ाइयों की वजह से भी दुनिया भर में इसकी शोहरत है। रज़ाइयों से जुड़ी शिल्पकला और कारिगरी की वजह से ही इन रज़ाइयों की धूम है। इन रज़ाइयों के चर्चे यों तो हम सबने ही सुन रखे हैं लेकिन यह जानना कम दिलचस्प नहीं है कि इन रज़ाइयों का अपना अलग इतिाहस भी है और हमारी हस्तशिल्प की परंपरा को यह आगे बढ़ा रही है। इन रज़ाइयों को लेकर कोई किताब भी लिखी जा सकती है, इसकी कल्पना बहुत कम ही लोगों ने की होगी। लेकिन पोलिश लेखिका क्रिस्टिना हेलस्ट्राम ने न सिर्फ जयपुर की रज़ाइयों पर एक बेहतरीन किताब लिखी है बल्कि बहुत सारी ऐसी जानकारियां भी दी हैं जिसकी जानकारी हम में से बहुत कम लोगों को रही होगी। स्टॉकहोम में रह रहीं हेलस्ट्राम को यहां की हस्तकला, शिल्प और ख़ास कर रज़ाइयों ने बेहद प्रभावित किया और यह पुस्तक लिखने की वजह भी यह रज़ाइयां ही बनीं। यक़ीनन इस काम में उन्होंने काफी मेहनत की है और बहुत अध्ययन भी। शायद यही वजह है कि उन्होंने इस बात का उल्लेख किया है कि पुस्तक लिखने में समय ज्यादा लग गया।
    क्रिस्टिना की किताब ‘जयपुर क्विल्ट्स’ से ऐसी कई बातों का पता चलता है जो इतिहास का एक हिस्सा भी है। दुनिया भर में मशहूर जयपुर रज़ाई का इतिहास क़रीब ढाई सौ साल पुराना है। जयपुर के तत्कालीन माहाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय ने रज़ाई बनाने वालों को पास-पड़ोस के इलाकों से लाकर जयपुर में बसाया था। धीरे-धीरे इस कारिगरी का विस्तार हुआ और अब देश में ही नहीं विदेशों में भी इसका एक बड़ा बाज़ार है। लेखिका ने रज़ाई की कारिगरी से जुड़े तथ्यों को खंगालने के लिए काफी छानबीन की है। सवाई मानसिंह संग्रहालय से उन्हें जयपुर रज़ाई और इसके इतिहास से जुड़ी जानकारियां हासिल करने में मदद मिली है। लेखिका ने इस बात का उल्लेख भी किया है कि इस संग्रहालय में उस दौर की कई रज़ाइयां हैं, जो अपने शिल्प और कारिगरी की वजह से आज भी मन मोहती हैं। इनमें से ही एक रज़ाई सत्रहवीं सदी की है तो दो रज़ाइयां अठारहवीं सदी के अंत की हैं। ये दोनें बनारसी ब्राकेड से तैयार की गई थीं और इसकी सुंदरता आज भी देखते बनती है। लेखिका ने पुस्तक में यूरोप में रज़ाई के इतिाहस से जुड़ी जानकारी भी दी है। जो यक़ीनन दिलचस्प है।
    जयपुर की रज़ाई सूती और मख़मल दोनों में बनाई जाती है। सूती रज़ाई बनाने के लिए मलमल का इस्तेमाल किया जाता रहा है और इनमें ढाई सौ ग्राम से ज्Þयादा रुई नहीं डाली जाती। शायद यही वजह है कि जयपुर की रज़ाई हल्की और ख़ूबसूरत होती है।
    पुस्तक में प्राचीन भारत में रज़ाई के इस्तेमाल की जानकारी भी दी गई है। लेखिका के मुताबिक़ रज़ाई का इतिाहस गुप्त काल से जुड़ा है। लेकिन संभवत: भगवान विष्णु के मानने वालों ने पहली बार रज़ाई का इस्तेमाल किया। इसे लेकर लेखिका का तर्क यह है कि वैष्णव मांस-मछली नहीं खाते थे, इसलिए उन्होंने सर्दी से बचने के लिए जानवरों की खालों के बजाय कपड़े या इसी तरह की दूसरी चीजों में कुछ भर कर इस्तेमाल करना शुरू किया। बाद में यही ओढ़ना रज़ाई के तौर पर विकसित हुआ। दिलचस्प बात यह है कि पुस्तक में इस बात का उल्लेख भी है कि सत्रहवीं शताब्दी में एक वर्ग ऐसा भी था, जिसे धुनिया कहा जाता था। ज़ाहिर है कि ऐसा कर लेखिका ने रज़ाई के इतिहास को और भी प्रामाणिक ढंग से हमारे सामने रखा है।
    किताब के आरंभ में बहुत ही सहज और सरल भाषा में उन्होंने जयपुर की सभ्यता, संस्कृति और विरासत की चर्चा की है। अच्छी बात यह है कि किताब में ढेर सारे हिंदी के प्रचलित शब्दों का इस्तेमाल किया गया है, जो पुस्तक के महत्त्व को तो बढ़ाते ही हैं, भारतीय हस्तशिल्प और कारिगरी के फलक को भी विस्तार देते हैं। पुस्तक को दर्शनीय और पठनीय बनाने में चित्रों की भी बड़ी भूमिका है। पुस्तक में छपी तस्वीरों के ज़रिए चीजों को समझने-जानने में आसानी होती है। लेखिका ने पुस्तक के अंत में इस बात की ख्वाहिश ज़ाहिर की है अगली बार जब वे भारत की यात्रा पर आएंगी तो जयपुर जाकर भारतीय छापा कला को और बेहतर ढंग से जानने की कोशिश तो करेंगी ही, रज़ाई बनानी की कारिगरी को भी ठीक से देखने-समझने की कोशिश करेंगी।

    जयपुर क्विल्ट्स: लेखिका: क्रिस्टिना हेलस्ट्राम, प्रकाशक: नियोगी बुक्स, डी-78, ओखला इंडस्ट्रियल एरिया फेज-1, नई दिल्ली-110020, मूल्य: 1495 रुपए।

    2 टिप्‍पणियां:

    1. इतनी भीषण गर्मी में रजाई का उल्लेख? बाप रे!

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    2. अभी तक इन रजाइयों का इस्तेमाल किया था ...आज इनके विषय में जानकारी देने के लिए ,आभार!!

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